शादी दो आत्माओं का मिलन है या जातिवाद को बढ़ावा देने वाला समारोह ।
मुझे लगता कि भारत ही एक मात्र ऐसा देश है जहाँ शादी को लेकर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में बहस चलती है । महीनों वक्त बर्बाद किया जाता है । नए नियम कानुन बनाये जाते हैं । माना समाज की बुराइयों को दूर करना , पीड़ितों के साथ न्यायालय करना न्यायालय पालिका का कार्य है । लेकिन प्रश्न यह है कि हमारे देश में शादी इतना बड़ा मुद्दा क्यों है । क्यों हम शादी जैसे मसले को इतना वक्त देते हैं ?
तो जवाब निकल कर आता है कि शादी से ही तो समाज का निमार्ण होता है आप सोचेगे कैसे ? वो ऐसे की हमारे इस सभ्य समाज में एक मान्यता है कि शादी दो इंसानों का नहीं बल्कि दो परिवारों का मिलन है और ऐसे ही परिवारों के मिलन से तो समाज बनता है । जिस जाति या जिस धर्म के परिवारों का मिलन अधिक होता है उस जाति या धर्म के लोगों की संख्या बढ़ती है । जिससे उस जाति या धर्म का प्रभाव भी बढ़ता है ।
ऐसे में पेच यहाँ आकर फँसता है की समान धर्म या जाति में शादी करने के पीछे की वजह क्या है असल में हमारे समाज में जाति और धर्मवाद की नींव शादी से ही पड़ती है । इसीलिये हमारे यहाँ लोग शादी के लिए जाति और धर्म पहले देखते हैं गुण बाद में । और अगर किसी ने इन नीतियों को तोड़ने की हिम्मत कर के अपनी इच्छा से विवाह करने की कोशिश तो अपने ही परिवार वाले उसके दुश्मन बन बैठते है। स्वयं के माता पिता ही हत्यारे बन जाते हैं ।
प्रेमी युगल को अपनी जान बचाने के लिए पुलिस का सहारा लेना पड़ता है कितनी अजीब परिस्थितियों उत्पन्न हो जाती है । और फिर बात आकर वही जाति के सम्मान पर अटकती है । अन्त में न्यायालय को बीच में आना पड़ता है ।
जबकि हिन्दू हो या इस्लाम धर्म सभी धर्मों में दूसरे जाति या धर्म में विवाह करना गलत नहीं माना गया है । हमारे हिन्दू धर्म की बात करे तो हमारे यहाँ स्वयंवर की प्रथा युगों से प्रचलित है प्रत्येक कन्या को वर चुनने का अधिकार है । बहुत से राजाओं ने अपने जाति से भिन्न जातियो में शादियां की है । लेकिन इतिहास में ही ऐसे भी बहुत से उदाहरण है जहाँ जाति और शादी को लेकर ही भीषण रक्त पात हुआ है ।
मुद्दा ये नहींं है क्या हुआ क्या होगा मुद्दा ये है कि हमारे यहाँ शादी को धर्म और जाति से जोड़ कर देखते क्यो है ? और प्रश्न ये है कि यदि जाति औऱ धर्म से हमारा रिश्ता जन्ममरण का है तो शादी के बाद जाति या धर्म कैसे बदल सकता है । और अगर विषय केवल आस्था का है तब तो बदलने का प्रश्न ही नहींं उठता क्योंकि विचारों पर किसी का नियंत्रण नहींं हो सकता है । तब समस्या आती कहाँ है । असली समस्या फिर जाति पर ही आकर अटकती है ।
अगर दो विपरीत जाति या धर्म वाले लोगों ने शादी की तो उनके बच्चे का क्या उपनाम होगा । जाहिर है पुरुष प्रधान इस देश देश में बच्चे को पिता का ही नाम और कुल मिलेगा । लेकिन सच्चाई तो ये होंगी की वो बच्चा किसी एक जाति का होगा ही नहीं उसमें दोनों जाति या धर्मों के खून एवं संस्कार होंगे । जिस कारण वो बच्चा दोनों धर्मों का होगा और किसी धर्म या जाति का नहीं । उसके विचार सफलता विफलता दोनों जातियों की और धर्मों की होंगी ।
अगर समाज के अधिकतर लोगों ऐसा करने लगे तो समाज से जातिवाद और धर्म वाद को कठोर ठेस पहुँचेगी । इसलिए तो जाति और धर्म के ठेकेदार ऐसा होने नहीं देते । क्योंकि अगर ऐसा होने लगा तो फिर उनकी दुकाने कैसे चमके गी । अगर एक गंभीर दृष्टि डाले तो हाँँ हमारे समाज में शादी एक महत्वपूर्ण विषय है क्योंकि लगभग समाज की आधी बुराइयों की जड़ यही है ।
हमारे समाज मे जो युगों से छुआ – छूट , ऊँँच – नीच जातिपाती और धार्मिक श्रेष्ठता की जो भावनाएं है । उसका उदय शादी की वेदी पर ही होती है औऱ इन सभी बुराइयोंं को केवल उसी लग्नमण्डप की अग्नि जला सकती है । कोई भी न्यायालय चाहे कितने भी पहरे बैठा ले होगा वही हो जनता चाहती है । जो समाज चाहता है ।
अब समाज को बदलने की बारी है । उनसे ये पूछने की जरुरत है क्या है जाति ? क्या है धर्म ? और क्या है शादी ? इतने लंबे आत्म मंथन के बाद भी मुझे शादी उतना गंभीर विषय नहीं लगता जितना लोग मानते हैं । यदि दो लोग आपस में खुश हैं तो वही है असली शादी । और अगर जाति धर्म देखकर , कुंडली मिलाकर , 36 गुण बैठा कर , डोल नगाड़ा बजाकर, लाखों रुपए उठाकर भी ना वर खुश है ना वधु तो क्या फायदा ऐसी शादी का । जहाँ जीवन नरक से भी बत्तर हो ।
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