जनता ही बनाती अपराधी को नेता
देश में चुनाव की सरगर्मी एक बार फिर तेज हो चुकी है । देश के सबसे बड़े प्रदेश की सरकार का चुनाव है । सभी दल अपने – अपने तरीके से मतदाताओं को लुभाने में लगे हैं । कोई प्रतिज्ञा , कोई विजय तो कोई विकास का मंत्र फुक रहा है ।
सभी जनता के उद्धारक, हितैषी तथा जननायक बने फिर रहे हैं । वादों और दावों में कोई कसर छूटी नहीं है । आरोप प्रत्यारोप का सिलसिला अपने चरम पर है । खैर ये सब तो हर चुनाव में होता है । खास ये है कि इस बार जनता भी समीक्षा और मूल्यांकन के मूड में है । पिछले कई चुनावों से मतदाताओं की मनोस्थिति में परिवर्तन आ रहा है । जनता जागरूक हो रही है । चुनावों में विकास के मुद्दे को अधिक उठाया और सराहा जा रहा है । लेकिन जनता के जागरूक होने के बाद नहीं भारतीय राजनीति लोकतंत्र के मानकों को पूरा नहीं कर पा रही है । राजनीति में अपराधियों का आगमन और राजनीति का अपराधिकरण आज भी ना सिर्फ जारी है बल्कि लगातार बढ़ रहा है ।
अपराधी नेताओं की बढ़ती सक्रियता
सभी राजनीतिक दल अपने वित्तिय लाभ के लिए समाज के दबंग नेताओं को टिकट देते हैं । ताकि उनके नगद से पार्टी की सुचारु रूप से चलती रहे । समाज भी रंगबाज लोगों को नेता के रूप में जल्दी स्वीकार कर लेता है । इससे पार्टियों की दो तरफ लाभ होता है । अतिरिक्त धन मिलता है तथा प्रचार में खर्च भी कम होता है ।
आँकड़ों पर गौर करे तो पता चलता है कि 2004 के आम चुनाव में 24 फीसदी आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसद संसद पहुंचे थे । 2009 लोकसभा चुनाव में यह आंकड़ा बढ़कर 30 प्रतिशत हो गया । 2014 के आम चुनाव में 34 फ़ीसदी सांसदों पर एफ .आई. आर दर्ज थे और 2019 में यह आंकड़ा बढ़कर 43 प्रतिशत हो गय। इन 43 प्रतिशत सांसदों ने से 29 प्रतिशत सांसदों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं।
हमारे संसद में 88 प्रतिशत नेता करोड़पति तो वहीं उत्तर प्रदेश विधानसभा में 78 फीसद विधायक करोड़ों के मालिक है ।
ये आंकड़े दिखाते हैं कि आज भी हमारा देश शुद्ध राजनीति से कितना दूर है और दूर होता जा रहा है ।
फरवरी 2020 में देश की उच्चतम न्यायालय ने राजनीतिक दलों को कहा था कि वह चुनावी मैदान में उतरने वाले प्रत्याशियों का अपराधिक ब्यौरा जनता के सामने रखें । सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था राजनीतिक दल आपराधिक व्यौरा को अपने-अपने वेबसाइट पर सार्वजनिक करें , आदेश का पालन ना करने की दशा में अवमानना की कार्यवाही की जाएगी ।
न्यायाधीश आरएफ नरीमन और न्यायाधीश एस रविन्द्र भट की बेंच ने सुनवाई के दौरान कहा कि राजनीतिक दलों को बताना होगा कि उन्होंने साफ-सुथरी छवि वाले प्रत्याशी के स्थान पर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति को टिकट क्यों दिया । “जिताऊ उम्मीदवार” की दलील मान्य नहीं होगी ।चुनाव आयोग ने भी राजनीति के अपराधीकरण पर रोक लगाने के लिए कई नियम बनाये हैं ।
इन नियमों के बावजूद भी राजनीतिक दल खलनायकों को जननायक बनाकर चुनावी मैदान में उतार रहे हैं । आश्चर्य तो इस बात का है कि ऐसे नेताओं के जीतने की उम्मीद भी ज्यादा रहती है । एक सर्वे के अनुसार दागी नेताओं के जीतने की उम्मीद 18 प्रतिशत होती है तो साफ- सुथरे छवि वाले नेता के जीतने की उम्मीद मात्र 6 फीसदी होती है ।
दागी नेताओं को जनता ही चुनकर शासन में लाती है । और फिर जब वो नेता सेवक के स्थान पर शासक बन कर जनता का शोषण करते है तो हम व्यवस्था पर सवाल उठाते हैं ।
जिस मुद्दे को चुनाव में उठाना चाहिए उसपर हम चुनाव के बाद ध्यान देते हैं । जिससे हमारा लोकतंत्र दिन प्रतिदिन खोखला होता जा रहा है । ये जनता का दायित्व है कि वो लोकतंत्र को बचाने के लिए एक जननायक का चुनाव करें खलनायक का नहीं ।
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