बनारस की संस्कृति संगीत और नृत्य का अनोखा संगम

बनारस घराने की एक झलक

बनारस जहां जीवन और मृत्य साथ – साथ चलता है । जहां राग और वैराग एक साथ पलता है क्योंकि जैसे शिव अनोखे है वैसे ही उसकी काशी भी अनोखी है । यह शहर धर्म और आस्था का केंद्र भी है और मोहब्बत का दूसरा नाम भी । यहां जहां एक ओर मणिकर्णिका पर चिताओं की आग कभी ठंडी ना पड़कर जीवन के अमित सत्य को बताती है तो वहीं दूसरी ओर कबीरचौरा गली जीवन से मिलाती है। कबीरचौरा काशी की वही गली है जहां बहुत से भारत रत्न बहुत से पद्म पुरस्कार विजेताओं ने अपने कला को जिया है । इस गली को पद्म गली भी कहते हैं । यह गली काशी के कलाकारों की कर्मभूमि है ।

बनारस की संस्कृति
अमर उजाला

शिव के डमरू से उत्पन्न संगीत के स्वर काशी के कण-कण में गूंजते हैं । नटराज की नगरी में की नृत्य काल परिचय की मोहताज नहीं है ।

आज काशी की दिव्यता और भव्यता किसी से छिपी नहीं है । काशी के ना सिर्फ भारत अपितु विश्व के मानचित्र पर भी अपनी अलग पहचान बना चुका है काशी में आज बड़े – बड़े सफल महोत्सव हो रहे हैं । देश के जाने माने कलाकार उसमें शिरकत कर रहे हैं ।

लेकिन कला की दुनिया से बनारस का रिश्ता बहुत पुराना है । बनारस घराने ने  गायन वादन और नृत्य में अपना लोहा पहले ही मनवा लिया है ।

बनारस घराना एक ऐसा घराना है । जहां गायन वादन और नृत्य तीनों विधाओं का अनोखा संगम देखने को मिलता है ।  बनारस घराने का इतिहास बहुत ही पुराना है । काशी में प्राचीनकाल से ही संगीत की प्रतिष्ठा ‘गुथिल’ जैसे संगीतज्ञों ने की थी। जातक कथा के अनुसार ये वीणा बजाने में सिद्धहस्थ थे। 14वी सदी में हस्तिमल द्वारा रचित नाटक ‘विक्रांत कौरवम्’ में काशी के संगीत का वर्णन मिलता है।

@rawalvikash_official (Instagram)

16वीं सदी में काशी के शासक गोविन्द चन्द्र के समय गणपति अपने कृति ‘माधवानल कामकंदला’ में नाचगाना, कठपुतली का तमाशा और भाँड का विवरण देते हैं। चैतन्य महाप्रभु का भजन-कीर्तन और महाप्रभु वल्भाचार्य का हवेली संगीत आज भी काशी में जीवंत है। इसी काशी में तानसेन के वंशज काशीराज दरबार की शोभा थे। काशी में संगीत नृत्य यह सभी विरासत में मिलते हैं । गुरु शिष्य परंपरा यहां की फिजाओं में बहती है ।

बनारस घराना मुख्यता तबला सितार सारंगी वादन ठुमरी कजरी टप्पा खयाल गायकी और कत्थक नृत्य के लिए  प्रसिद्ध है ।

बनारस घराना और वाद्य शास्त्र

काशी ने देश को दुनिया को बहुत से वाद्य शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान दिए हैं । विश्व संगीत के पितामह कहे जाने वाले सितार वादक पंडित रविशंकर विशुद्ध बनारसी थे ।


सितार हो, तबला हो , शहनाई हो या सारंगी हो बनारस ने सभी के विकास में योगदान दिया है । बनारस के बहुत से वादकों को ने अलग-अलग वाद्य यंत्र द्वारा विश्व कीर्तिमान हासिल किया है ।

बनारस की संस्कृति

सारंगी वादक सिया जी , शहनाई वादक भारत रत्न बिस्मिल्लाह खान , तबला वादक पद्म विभूषण पण्डित किशन महाराज , कालजयी तबलावादक पद्मभूषण पंडित समता प्रसाद उर्फ गुदोई ,  प किशन महाराज के चाचा के पंडित कंठे महाराज ,   सितार वादक विश्व संगीत के पितामह पंडित रविशंकर आदि बहुत से नाम है जिन्होंने बनारसी कला का परचम विश्व में लहराया ।

पंडित रामसहाय


तबला वादन के प्रसिद्ध घरानों में से एक बनारस घराने की स्थापना पंडित राम सहाय ने करीब 200 वर्ष पहले की थी ।इन्होंने तबला वादन की नई शैली आरंभ की इसे बनारस बाजा कहा गया । इसकी विशेषता एकल वादन थी । जिसके कारण नृत्य के साथ संगत किया जाना संभव हो सका । पंडित राम सहाय ने अंगुलियों के साथ के लिए एक नया तरीका खोजा जो विशेषकर ‘ना ‘ की  ताल के लिए मशहूर था ।

संगीत रत्न पंडित अनोखेलाल


बनारस के प्रसिद्ध तबला वादक पंडित अनोखेलाल की ‘ना धि धि ना’ थाप विश्व प्रसिद्ध है । अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन द्वारा पंडित जी को संगीत रत्न की उपाधि दी  है ।  भारत सरकार द्वारा एक बार इन्हें सांस्कृतिक दूत  बनाकर नेपाल भी भेजा गया है ।  1955 में अफगानिस्तान के शाह जहीरशाह ने इन्हें मौसिकी तबला से नवाजा है ।

पंडित शारदा सहाय


पंडित सदा सहाय ने देश में ही नहीं अपितु विदेश में बनारसी तबले की थाप के सामने लोगों को झुकने पर मजबूर कर दिया । सात समंदर पार का कोई भी प्रसिद्ध विश्वविद्यालय ऐसा नहीं है जहां बनारसी तबले की आवाज में गूंजी हो । पंडित जी ने अपने कर्मभूमि का केंद्र यूनाइटेड किंग्डम की राजधानी लंदन को बनाया । यूनाइटेड स्टेट के  वेस्लियन यूनिवर्सिटी के वर्ल्ड म्यूजिक प्रोग्राम में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया ।

ब्राउन यूनिवर्सिटी व बर्कली स्कूल में बतौर विजिटिंग प्रोफेसर अपने ज्ञान का दान दिया । पंडित जी ने ना सिर्फ विश्वविद्यालयों में तबले के ज्ञान को बढ़ाया बल्कि यूके में राम सहाय नामक  विद्यालय की स्थापना की । आज इंग्लैंड, कनाडा ,ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका में उनके नाम से विद्यालय हैं ।

समता प्रसाद उर्फ गुदोई महाराज


पद्म भूषण पद्म विभूषण से नवाजे गए समता प्रसाद ने बनारसी तबले को फिल्मों में स्थान दिलाया । ‘झमक झमक पायल  बाजे’,  “तेरी सूरत ,मेरी आंखें “, “वसंत विहार”, किनारे”, “मधुबाला” आदि फिल्मों में उनके तबले का अविस्मरणीय योगदान है । “शोले” जिस सीन में बसंती  डाकुओं बचने के लिए टांके से भाग रही थी ।उसके पृष्टभूमि में जो अशुभ का संकेत करता तबले का थाप , बनारसी थाप है ।  जिसका श्रेय कालजयी तबलावादक पद्मभूषण पंडित समता प्रसाद उर्फ गुदोई  महाराज को जाता है ।

पंडित कंठे महाराज

पंडित किशन महाराज के गुरु और चाचा पंडित कंठे महाराज के नाम 1954 में लगातार ढाई घंटे तबला बजाने का विश्व  कीर्तिमान दर्ज है । पंडित कंठे महाराज के शिष्यों में पंडित शारदा सहाय,  पंडित आशुतोष भट्टाचार्य , पंडित नाटू बाबू आदि महान तबला वादकोंं का नाम आता है ।

पंडित किशन महाराज

पद्मभूषण और पद्मश्री से सम्मानित पंडित किशन महाराज ने बनारसी तबले की थाप को विश्व स्तर पर पहचान दिलायी । इन्होंने अपने तबले के थाप पर सितारा देवी ,  गोपी किशन , बिरजू महाराज जैसे महान नर्तकों को नचाया है । इनके शिष्य पंडित कुमार बोस, पंडित बालकृष्ण अईय्यर, सुखविंदर सिंह, नामधारी बनारसी तबले मैं नई पहचान दिला रहे हैं ।

सितार वादक पंडित रविशंकर


सर्वश्रेष्ठ स्वरलिपि के लिए 1983 में जॉर्ज फेेटन के साथ ऑस्कर अवार्ड अवार्ड से नवाजे गए पंडित रविशंकर को वीटल्स के जॉर्ज हैरीसन में विश्व संगीत के पितामह की उपाधि प्रदान की है । इन्होंने विश्व में बनारसी सितार शैली को एक अलग पहचान दिलायी है । भारत रत्ना पंडित रविशंकर राज्यसभा के मनोनीत सदस्य भी रह चुके हैं।

इन्होंने पश्चिम में भारतीय शास्त्रीय संगीत  शिक्षा को  लोकप्रिय बनाया है । इन्हें अद्भुत सितार वादन के लिए तीन बार ग्रैमी पुरस्कार से नवाजा गया है इन्होंने सत्यजीत रे के फिल्मों में संगीत दिया है और ऑल इंडिया रेडियो में बतौर संगीत निर्देशक अपनी सेवा दी है ।

भारत रत्न बिस्मिल्लाह खान

मशहूर शहनाई वादक बिस्मिल्लाह खान की कर्मभूमि बनारस रही है बनारस से अपने अटूट प्रेम संबंध के कारण ही इन्होंने अमेरिका से आए आमन्त्रण को ठुकरा दिया था । इन्होंने अपनी यात्रा ऑल इंडिया म्यूजिक कॉन्फ्रेंस में शहनाई बजा कर शुरू थी ।

मुख्यत इन्होंने सन्नादी अपन्ना (कन्नड़) “गूंज उठी शहनाई “और “जलसाघर” हिंदी फिल्मों में संगीत दिया है । 1947 में आजादी की पूर्व संध्या पर जब लाल किले से देश का झंडा फहराया जा रहा था तो बिस्मिल्लाह खाँँ की शहनाई आजादी का संदेश बात रही थी । तब से अब तक यह प्रथा बन गई है कि 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के भाषण के उपरांत इनकी शहनाई बजाई जाती है ।

बनारसी गायन

बनारस घराना ख्याल  और ठुमरी गायकी के लिए प्रसिद्ध है लेकिन यहाँ के धु्रपद, टप्पा, कजरी ,  होरी , दरार , भजन चैती का भी अपना ही एक अलग बनारसी अंदाज है ।


वैष्णव सम्प्रदाय के मंदिर में महाप्रभु  श्री वल्लभाचार्य जी द्वारा स्थापित षष्ठ पीठ में गोस्वामी श्री विðलनाथ जी द्वारा राग, भोग, श्रृंगार सेवा के अवसर पर पद गायन की परम्परा में चार घराने बताये जाते हैं जिनमें एक काशी घराना भी है। अष्टछाप के एक कवि नंददास जी काशी के ही थे।

काशी में शास्त्रीय संगीत को महत्वपूर्ण स्थिति प्रदान करने का श्रेय 16वीं शताब्दी के प्रारम्भ में राधा वल्लभ सम्प्रदाय के गायक पं0 दिलाराम जी मिश्र को जाता है। इन्होंने संगीत की शिक्षा स्वामी हरिदास के संगीत गुरू श्री 108 लहित हित हरिवंश स्वामी से प्राप्त की थी। इनके बाद जगमन मिश्र, देवी दयाल मिश्र का नाम मिलता है। ये धु्रपद के विशेषज्ञ थे। 


वर्तमान में भारत के बनारस के ऐसे कई गायक है जो बनारस से लोकगीत को विश्व प्रसिद्ध कर रहे हैं । गिरिजा देवी   , छून्नीलाल मिश्रा,  राजन – साजन  आदि नाम प्रसिद्ध है ।

गिरजा देवी

पद्मश्री पद्म भूषण और पद्म विभूषण से सम्मानित  गिरिजा देवी ने अपनी प्रतिभा से बनारस घराने का नाम देश के कोने-कोने में फैलाया । ठुमरी ख्याल कजरी टप्पा गायन में महारत हासिल थी ।

भारत रत्न छन्नूलाल मिश्रा

संगीत मेंं योगदान के लिए भारत सरकार ने छन्नूलाल मिश्र को भारत रत्न 2020 से नवाजा है । किराना और बनारस घराने के छुन्नूलाल मिश्र अपने कजरी, ठुमरी, भजन, चैती और दरार गीतों के लिए जाने जाते हैं । खेले मसाने में होरी इनका सबसे चर्चित गीत है ।

खयाल गायक साजन मिश्र – राजन मिश्र

अमेरिका, ब्रिटेन ,सिंगापुर फ्रांस, स्वीटजरलैंड, ऑस्ट्रेलिया आदि अनेक मुल्कों में इन दोनों भाइयों की जोड़ी ने बनारस से खयाल शैली का अद्भुत प्रदर्शन किया । दोनों भाइयों की जोड़ी पद्मभूषण से नवाजा जा चुका है । दोनों भाइयों ने ना सिर्फ 400 साल पुरानी पारिवारिक परंपरा को आगे बढ़ाया है बल्कि बनारसी गायकी का पताखा पूरे विश्व के फहरा दिया है ।

बनारसी नृत्य

बनारसी नृत्य शैली मूलत:  कथक है । बनारसी कथक की  अपनी एक अलग शैली और अलग पहचान है । बनारसी नृत्य घराने ने देश को ऐसे बहुत से नर्तक, नर्तकी दिये हैं । जिनके सानिध्य अनेक कलाकारों की प्रतिभा निखरी है । महान नृत्यांगना सितारा देवी , गोपी कृष्ण ,  बनारस के ही थे ।

कथक क्वीन सितारा देवी

पंडित किशन महाराज के साथ संगतकर अपने घुंघरू से मशीनगन की आवाज निकालने वाली सितारा देवी बनारसीकथक नृत्यांगना थी । रविंद्र नाथ टैगोर ने ” कथक क्वीन” का खिताब दिया था । इन्होंने मदर इंडिया नृत्य प्रस्तुत किया था ।”मधुबन में राधा नाचे रे” और” मुग़ल-ए-आज़म” जैसे  बहुचर्चित फिल्मों में कोरियोग्राफी की थी  । इस महान कथक नृत्यांगना गायक और अभिनेत्री के जीवन पर राज आनंद मूवीस ने फिल्म बनाने की घोषणा की है । जिसमें ठूमरी और कथक स्थापना करने और उसे जिंदा रखने में सितारा देवी के योगदान को दिखाया जाएगा ।

गोपी कृष्ण

पद्मश्री विजेता गोपी कृष्ण के नाम 9 घंटे 30 मिनट तक लगातार कथक करने का विश्व रिकॉर्ड है । यह भारतीय फिल्म के सबसे कम उम्र के कोरियोग्राफर्स में से एक थे । इन्होंने मधुबाला , दास्तान ,उमराव जान ,महबूब बहुत सी जैसी फिल्मों में कोरियोग्राफी की है ।  “झनक झनक पायल बाजे” में ये नर्तक गिरधर की भूमिका में पर्दे पर दिखाई दिए ।

वैश्वीकरण के इस दौर में जहां दुनिया पाश्चात्य संस्कृति को अपना रहीं है वहींं बनारस अपने  पुरातन अस्तित्व के साथ नवीनता को अपनाते हुए आगे बढ़ रहा है । बनारसी युवा आज भी बनारस घराने की रौनक को बनाए रखने के लिए प्रयासरत है । बनारस के वर्तमान पीढ़ी में पंडित कुमार घोष,  पंडित समर सहा,  पंडित बालकृष्ण अईय्यर , पंडित शशांक बख्शी,  संदीप दास , पार्थसारथी मुखर्जी,  सुखविंदर सिंह , नामधारी ,विनीत व्यास और अन्य कई  जो विश्व के शीर्षपटल पर बनारसी कला उपलब्धियों को निरंतर बढ़ा रहे हैं ।

Wikipedia…काशी

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