नारी शिक्षा को ज़मीनी हकीकत में बदला सावित्रीबाई फुले ने
नारी शिक्षा ; ‘जाओ,जाकर पढ़ो-लिखो, और बनो मेहनती और आत्मनिर्भर। काम करो,धन और ज्ञान एकत्र करो,क्योंकि ज्ञान के बिना खो जाता है सब कुछ। ज्ञान के बिना हम बन जाते हैं पशु।इसलिए खाली न बैठो।जाओ,जाकर शिक्षा लो। दमितों और त्याज्य के दुखों का अंत करो सुनहरा मौका ना गवाएं सीखने का।’यह पंक्तियां हैं मशहूर मराठी कवयित्री और नारी शिक्षा की अग्रदूत सावित्रीबाई फुले की।
सावित्रीबाई फुले जो स्वयं एक दलित महिला थी लेकिन हौसला इतना बुलंद की महिलाओं के जीवन में देवदूत बनकर उभरी। प्राचीन समय में जब नारी शिक्षा किसी पाप से कम नहीं समझा जाता था उस समय सावित्रीबाई फुले ने नारी शिक्षा का बीड़ा उठाया। उनके इस कार्य के लिए ना जाने कितनी सजाए उन्हें भुगतनी पड़ी लेकिन वो पीछे नहीं हटी। उन्होंने सभी सामाजिक आलोचनाओं को अपना हथियार बनाकर निकल पड़ी समाज सेवा करने।
महाराष्ट्र में देवी की तरह पूजनीय सावित्रीबाई फुले का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले के नयागांव नामक छोटे से गांव में खंदोजी नेवसे और लक्ष्मी के घर 1 जनवरी,1831 को हुआ था। 1840 में महज 9 वर्ष की बाल्यावस्था में ही इनका विवाह महात्मा ज्योतिबा फुले से हुआ। पति की तरह ही सावित्रीबाई ने अपना सम्पूर्ण जीवन विधवा विवाह,बाल विवाह,महिला मुक्ति,सती प्रथा विशेषकर वंचित वर्ग की नारी शिक्षा और अंधविश्वास तथा अस्पृश्यता जैसे सामाजिक सुधारों को समर्पित कर दिया था।
3 जनवरी 1848 को भारत के पुणे में पहला बालिका विद्यालय खुला जिसमें सावित्रीबाई को उसकी पहली शिक्षिका होने का श्रेय हासिल हुआ। बाद में आगे चलकर इन्होंने 17 बालिका विद्यालय खोलें। प्रथम किसान स्कूल की भी स्थापना इन्होंने किया। यह सब इतना आसान नहीं था इनके लिए। सावित्रीबाई की बातों से प्रेरित होकर महिलाएं शिक्षित होने के लिए राजी तो हो गईं पर सवाल यह था कि उन्हें शिक्षित करेगा कौन? इस विकट स्थिति में सावित्रीबाई ने धैर्य रखा और अपने पति उसके बाद मिसेज मिशेल के स्कूल से प्रशिक्षण लेकर यह जिम्मेदारी स्वयं संभाली। इन्होंने न केवल महिलाओं को शिक्षित किया बल्कि स्वयं भी शिक्षा ग्रहण किया।
सावित्रीबाई को लड़कियों के लिए स्कूल खोलने की प्रेरणा 31 वर्षीय अमेरिकी महिला सिंथिया फरारे से मिली। कई विरोध के बावजूद फुले दंपति ने पढ़ाने लिखाने की जिम्मेदारी छोड़ी नहीं। हालांकि इनके इस सामाजिक सुधार का दंड भी भुगतना पड़ता था। कई बार तो रास्ते में लोग उन पर गंदगी और कीचड़ भी फेंक देते थे लेकिन उन्होंने अपनी निष्ठा और निस्वार्थ सेवा से धीरे-धीरे अपने विरोधियों को भी अपना मित्र बना लिया।
24 सितंबर 1873 को सत्यशोधक नामक समाज की स्थापना की। उनके सामाजिक सुधार का यह सिलसिला यहीं नहीं थमा उन्होंने महाराष्ट्र में दुष्कर्म पीड़ित गर्भवती स्त्रियों के लिए बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना की तथा विधवा विवाह की परंपरा भी शुरू किया।
वर्ष 1897 मैं जब प्लेग के भाषण संक्रमण से महाराष्ट्र में मौत का तांडव चल रहा था तब स्वयं की परवाह किए बिना सावित्रीबाई ने दिन-रात एक कर प्लेग रोगियों की सेवा की। लोगों की सेवा करते-करते सावित्रीबाई खुद इस महामारी की चपेट में आ गई और 10 मार्च 1897 को समाजिक सुधार की ये लौ सदैव के लिए मुंदित हो गईं।
Wikipedia-सावित्रीबाई फुले
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